Thursday, February 20, 2014

वकतव्य

अल्प ज्ञान खतरनाक होता है।
उपदेश देना सरल है, उपाय बताना कठिन।

जो दूसरों को जानता है, वह विद्वान है। जो स्वयं को जानता है वह ज्ञानी।

Wednesday, February 5, 2014

कामवासना का रूपांतरण

कामवासना पकड़े तब क्या करें?

ओशो :जब कामवासना पकड़े , तब डरो मत। शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको –उच्छवास।
भीतर मत लो श्वास को। क्योंकि जैसे भी तुम भीतर गहरी श्वास को लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है। जब तुम्हें काम-वासना पकड़े, तब एक्सहेल करो। बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लोग और श्वास को बाहर फेंको जितनी फेंक सको।
धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे। जब सारी श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारा पेट और नाभि वैक्यूम हो जाते हैं। शून्य हो जाते हैं। और जहां कहीं शून्य हो जाता है, वहां आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। शून्य खींचता है। क्योंकि प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती। शून्य को भारती हैं।
तुम नदी से पानी भर लेते हो घड़े में। तुमने घड़ा भर कर उठाया नहीं कि गङ्ढा हो जाता है यानी में घड़े से। तुमने पानी भर लिया, उतना गङ्ढा हो गया। चारों तरफ से पानी दौड़ कर उस गङ्ढे को भर देता है।
तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए, तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है। और तुम्हें बड़ा रस मिलेगा। जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे, कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया। एक ताजगी! यह ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव तुम्हें होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद उदासी का होता है।
इसलिए जो लोग भी मूलाधार से शक्ति को सक्रिय कर लेते हैं, उनकी नींद कम हो जाती है। जरूरत नहीं रह जाती है। वे थोड़े घंटे सो कर भी ही ताजे हो जाते हैं, फिर तो दो घंटे तो कर उतने ही ताजे हो जाते हो जितने तुम आठ घंटे सो कर नहीं हो पाते, क्योंकि तुम्हारे शरीर को तो ऊर्जा को पैदा करना पड़ता, निर्मित करना पड़ता है, भरना पड़ता है। और बड़ा पागलपन है। रोज शरीर भरता है, रोज तुम उसे उलीचते हो। यूं ही उम्र तमाम होती है। रोज भोजन लो, शरीर को ऊर्जा से भरो, फिर उसे उलीचो और फेंक दो।
ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन बड़ा अनूठा अनुभव है। और पहला अनुभव होता है, मूलाधार से नाभि की तरफ जब संक्रमण होता है।
यह मूलबंध ही सहजतम प्रक्रिया है। कि तुम श्वास को बाहर फेंक दो, नाभि शून्य हो जाएगी, ऊर्जा उठेगी नाभि की तरफ, मूलबंध का द्वार अपने आप बंद हो जाएगा। वह द्वार खुलता है ऊर्जा के धक्के से। जब ऊर्जा मूलाधार में नहीं रह जाती, धक्का नहीं पड़ता, द्वार बंद हो जाता है।
मूल बांधि सर गगन समाना…
बस, तुमने अगर एक बात सीख ली कि ऊर्जा कैसे नाभि तक आ जाए, शेष तुम्हें चिंता नहीं करनी है। तुम ऊर्जा को, जब भी कामवासना उठे, नाभि में इकट्ठा करते जाओ। जैसे-जैसे ऊर्जा बढ़ेगी नाभि में, अपने आप ऊपर की तरफ उठने लगेगी। जैसे बर्तन में पानी बढ़ता जाए, तो पानी की तरह ऊपर उठती जाए।
असली बात मूलाधार का बंद हो जाना है। घड़े के नीचे का छेद बंद हो गया, अब ऊर्जा इकट्ठा होती जाएगी। घड़ा अपने आप भरता जाएगा।

कहे कबीर दीवाना - ओशो

Tuesday, February 4, 2014

सोलह कलाएं

16 kalas(Shodash kala)१६ कला का ज्ञान..

1. वाक् सिद्धि : जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं!

2. दिव्य दृष्टि: दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं!

3. प्रज्ञा सिद्धि : प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें!

4. दूरश्रवण : इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता!

5. जलगमन : यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो!

6. वायुगमन : इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं!

7. अदृश्यकरण : अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं!

8. विषोका : इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं!

9. देवक्रियानुदर्शन : इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं!

10. कायाकल्प : कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं!

11. सम्मोहन : सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं!

12. गुरुत्व : गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं!

13. पूर्ण पुरुषत्व : इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की!

14. सर्वगुण संपन्न : जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं!

15. इच्छा मृत्यु : इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं!

16. अनुर्मि : अनुर्मि का अर्थ हैं-जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो!

यह समस्त संसार द्वंद्व धर्मों से आपूरित हैं, जितने भी यहाँ प्राणी हैं, वे सभी इन द्वंद्व धर्मों के वशीभूत हैं, किन्तु इस कला से पूर्ण व्यक्ति प्रकृति के इन बंधनों से ऊपर उठा हुआ होता हैं!

ये कला सभी मनुष्य में पाई जाती है पर उस ज्ञान मनुष्य को नहीं होता ,
ऐसे मैं ये अज्ञानता वश वो आपने आप को हर जगह असहाय पता है। .
१६ कला का ज्ञान आप को भी हो सकता है। . पर आब इसे अरबो की आबादी मैं गुरु १ या २ ही मिलेगे जो ऐसा ज्ञान आपने शिष्यों को प्रदान कर पते है

ये ज्ञान खुद आपने आप पाया नहीं जा सकता है। . क्योंकी मनुष्य ने आपने आप को बहुत छोटा बना लिया और चाह की कमी हो जाती है तो और मुस्किल भरा हो जाता है। .

ये ज्ञान गुरु पादुका पूजन से आ सकता है जब आप अपने गुरु को पहचान सके
एकाकार होने की भावना हो समर्पण की भावना हो। शिष्य बनने की भावना हो

परमपूज्य गुरुदेव निखिलेश्वरानंद